नई दिल्ली। 125 साल पहले स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में जो स्पीच दी थी। उसकी सदा युगो-युगो तक गूंजती रही और आज भी विवेकानंद की स्पीच को याद रखा जाता है। विवेकानंद ने 11 सिंबर को शिकागो में स्पीच देकर पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया था और आज विवेकानंद के उसी भाषण को 125 साल गुजर चुके हैं।
आप भी जाने क्या बोले थे विवेकानंद
विवेदाकनंद ने अपने भाषण की शुरूआत करते हुए कहा था कि मेरे अमेरिका भाईयों बहनों आपने जिस तरह से हमारा स्वागत किया मैं उसका आभार प्रकट करता हूं। इस वक्त मेरा मन खुशी से भर आया है। दुनिया में संन्यासियों की सबसे पुरानी पंरपरा की तरफ से मैं आप सभी का धन्यवाद करता हूं। मैं इस मंच पर से उन सभी बोलने वाले सभी वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूं। कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं।
मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं।
वहीं विवेकानंद ने आगे कहा कि मैं ऐसे धर्म के अनुयायी होने पर गर्व करता हूं। जिस धर्म ने महान जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ठ अंश को जगह दी। विवेकानंद ने कहा कि भाईयों मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियां सुनाता हूं जिसकी आवृत्ति मैं बचपन से कर रहा हूं और जिसकी आवृत्ति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं। अर्थात् जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वत: ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है। अर्थात् जो कोई मेरी ओर आता है- चाहे किसी प्रकार से हो, मैं उसको प्राप्त होता हूं। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अंत में मेरी ही ओर आते हैं।
सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मांधता इस सुंदर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं।
यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियां न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया है और मैं आंतरिक रूप से आशा करता हूं कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटाध्वनि हुई है वह समस्त धर्मांधता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्परिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।