दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ को लेकर एक वाद-विवाद का आयोजन किया गया था जिसमें 30 से ज्यादा मार्क्सवादी विचारधारा का समर्थन करनेवाले लोगों को बोलने के लिए बुलाया गया था। विश्वविद्यालय के एबीवीपी को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी उनकी आपत्ति इस बात को लेकर थी कि उस डिबेट में जेएनयू के एक छात्र उमर खालिद को भी वक्ता के रूप में आमंत्रण मिला था जिसका विरोध करने के लिए एबीवीपी के छात्र प्रदर्शन करने लगे। इस प्रदर्शन ने उग्र रूप तब ले लिया जब इस प्रदर्शन के विरोध में आईसा और लेफ्ट समर्थित कई छात्र संगठन सड़क पर उतर आए। फिर दोनों संगठनों के छात्रों के बीच जो हुआ वह किसी से छूफा हुआ नहीं था। इसके बाद विपक्षियों को निशाने पर केंद्र सरकार आ गई।
इस सारे प्रकरण में जो हुआ वह भी किसी से छूपा हुआ नहीं है लेकिन मजे की बात तो यह रही कि सीताराम येचुरी, डी राजा, कन्हैया, मनीष तिवारी और केजरीवाल जैसे नेता इस पूरे संग्राम में कूद पड़े और यह पूरा का पूरा प्रदर्शन छात्र राजनीति से देश की राजनीति का रंग लेने लगा। लेकिन सबसे पहला सवाल था कि छात्र आंदोलन के इस समर में इन नेताओं का क्या काम था। बात समझते देर भी नहीं लगी जब केजरीवाल के समर्थकों के साथ गुरमेहर की फोटो और लेफ्ट के नेताओं के साथ भी उसकी तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो गई। हालांकि राजनाथ सिंह के साथ वकील की तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद जो बवाल मचा था संसद से सड़क तक वह इस बार नहीं मचा क्योंकि इस बार तस्वीरों में पक्ष के नहीं संसद के विपक्ष के नेता शामिल थे। जो इसी तरह से सरकार का विरोध करते रहे हैं।
इस मामले को लेकर गुरमेहर के विरोध में कई नामी गिरामी हस्तियां भी ट्विटर पर कूद पड़ी तो वहीं गुरमेहर के पक्ष में भी ऐसे लोगों का एक बड़ा समूह ट्विटर पर सक्रिय हो गया। दोनों तरफ से ट्विटर पर नोक झोंक का सिलसिला चल पड़ा। लेकिन इस सब के बीच असल मुद्दा दबता नजर आने लगा। विरोध की संस्कृति लोकतंत्र में नई नहीं है लेकिन छात्रों के विरोध का रंग राजनीतिक हो जाए यह पिछले कुछ समय से हो रहा है।
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